सोमवार, 22 नवंबर 2010

अब धुँआ मेरी ग़ज़लों से उठने लगा.


ग़ज़ल

आजकल मेरे दिल को ये क्या हो गया.
अच्छा खासा था ये बावरा हो गया.

अब धुँआ मेरी ग़ज़लों से उठने लगा,
लोग कहते हैं कुछ हादसा हो गया.

जिस्म से से जिस्म तो रोज़ मिलते रहे,
दिल से दिल का बड़ा फासला हो गया.

दर्द को मैंने पाला बड़े नाज़ से,
देखते देखते ये बड़ा हो गया.

झूट कहता रहा ताज सर पे रहा,
सच को क्या कह दिया सर जुदा हो गया.

याद फिर मुझको आया वो ज़ुहराजबीं,
ज़ख्म अपना पुराना हरा हो गया.

उपरोक्त प्रिंसीपल कक्ष की  हमारी ताज़ा तस्वीर और ग़ज़ल बहुत कुछ कह रही है फिर हम क्या कहें.
कृपया फोटो पर क्लिक कर स्पष्ट ज़ख़्मों को देखें.


प्रिंसीपल डॉ.सुभाष भदौरिया
सरकारी आर्टस कोलेज शहेरा जिल्ला पंचमहाल.
गुजरात मोबा.97249 49570



2 टिप्‍पणियां:

  1. परम आदरणीय डॉ.सुभाष भदौरिया जी
    नमस्कार !
    शानदार मतले से शुरू हुई बहुत ही शानदार ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद ! हार्दिक बधाई !!
    सारे शे'र ख़ूबसूरत और पूरी ग़ज़ल रवां दवां है

    जिस्म से जिस्म तो रोज़ मिलते रहे,
    दिल से दिल का बड़ा फासला हो गया

    क्या बात है सुभाष जी ! अभिधा, व्यंजना और लक्षणा … सब में अर्थ आ रहे हैं इस शे'र के ।

    बस, ख़ुद के आनन्द के लिए शे'र कोट कर रहा हूं, अन्यथा पूरी ग़ज़ल कोट ही मानें । अब इस शे'र को कैसे छोड़ूं ?
    झूट कहता रहा ताज सर पे रहा,
    सच को क्या कह दिया सर जुदा हो गया


    दर्द को मैंने पाला बड़े नाज़ से,
    देखते देखते ये बड़ा हो गया

    बहुत नज़ाकत-नफ़ासत लिये' हुए यह शे'र, हासिले-ग़ज़ल शे'र है । इसके लिए अलग से बधाई !


    निस्संदेह आप पुरअसर ग़ज़ल लाए हैं , इसके लिए शुक्रिया !


    # आपकी पिछली पोस्ट पर आपने प्रत्युत्तर में जो कुछ कहा … परमात्मा से आपकी हर समस्या के हल के लिए प्रार्थना है ।

    कभी आप भी हमारे यहां शस्वरं पर आ'कर बात करें तो अच्छा लगेगा ।

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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