रविवार, 13 अप्रैल 2014

मेरे हाथों से अब तक महक ना गयी, उनकी ज़ुल्फ़ों को छेड़े ज़माने हुए.

ग़ज़ल
मेरे हाथों से अब तक महक ना गयी , 
उनकी ज़ुल्फ़ों को छेड़े ज़माने हुए.
मेरी चाहत का जादू है अब तक जवां,
 हमने माना कि रिश्ते पुराने हुए.

ये कसक, ये तड़प. ये जलन ये धुआँ, 
उस मुहब्बत की ही बख़्शी सौगात है,
साज़ो-आवाज़ ये शेरो-शायरी, 
उनसे मिलने के कितने बहाने हुए.

वो मिले भी तो कब अब तुम्हीं देख लो, 
मेंहदी हाथों की बालों में जब आ गयी,
मेरी रातों को अब फिर से पर लग गये, 
मेरे तपते हुए दिन सुहाने हुए.

हाथ में हाथ फिर ले लिया आपने,
 पेड़ सूखा हरा कर दिया आपने,
ज़िन्दगी की सुलगती हुई धूप में,
 तेरी चाहत के फिर शामियाने हुए.

रूखी सूखी में हमने गुज़ारा किया, 
उनकी चौखट पे सर ना झुकाया कभी,
अब तो सौदागरों को ये अफ़्सोस है, 
उनके बेकार सारे ख़ज़ाने हुए.

डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात ता.13-04-2014



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