ग़ज़ल
दिल-दुखाई के किस्से सुनाऊँ किसे.
ज़ख़्म गहरे हैं अपने दिखाऊँ किसे.
कौन दुनियाँ में अपना तलबगार है ?
फोन किसको करूँ मैं बुलाऊँ किसे .
रूठने और मनाने के मौसम गये,
किससे रूठूँ मैं अब मैं मनाऊँ किसे.
ग़म जो दो चार हों तो भुलाऊँ उन्हें,
सैकड़ों ग़म हैं अपने भुलाऊँ किसे .
शाख़ पर फल मेरे आ गये इन दिनों,
अब तो झुकता हूँ खुद मैं झुकाऊँ किसे.
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.24-07-2016
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