रविवार, 25 जून 2017

खा के ठोकर वो समझेगा शायद.

ग़ज़ल 
खा के ठोकर वो समझेगा शायद.
मुझको खोकर वो समझेगा शायद.

बात हँस कर के जो नहीं समझा,
बात रोकर वो समझेगा शायद.

दूरियों के पहाड़ इक बिस्तर,
साथ सोकर वो समझेगा शायद.

काग़ज़ी कश्ती पे रक्खे हैं यकीं,
सब डुबोकर वो समझेगा शायद.

दा़ग़ दामन के ना मिटने वाले,
हाथ धोकर वो समझेगा शायद.

डॉ. सुभाष भदौरिया ता.25-06-2017 गुजरात


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