बुधवार, 11 मार्च 2009

ग़ज़लों को हमें अपनी चाकू सा बनाना है.

ग़ज़लसच्चों की तबाही है, झूटों का जमाना है.
हर सिम्त हमारा दिल हर इक का निशाना है.

तुम हुस्न के तलवों को चाटोगे हमें मालूम,
ग़ज़लों को हमें अपनी चाकू सा बनाना है.

अंधों की हुकूमत में आँखें ही बनी दुश्मन,
सूली पे मगर हँसकर अहवाल सुनाना है.

ईमां को बचा रखना, ईश्वर पे यकीं करना,
ये पास हमारे बस पुरखों का खज़ाना है.

खामोश तमाशा जो, ज़ुल्मत का अभी देखें,
मकतल पे उन्हें इक दिन बस ज़ल्द ही आना है.

हमसे तो नहीं होगा, हम कैसे उन्हें रोकें,
लोगों का बहाना भी, क्या खूब बहाना है.

पतवार है हाथों में, बाजू पे भरोसा है,
रुख मोड़ के तूफां का, दुनियाँ को दिखाना है.


ज़ख्मों की करें इज़्ज़त, मातम न करें उनका,
अंदाज़ हमारा तो बरसों से पुराना है.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.11-03-09

























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