ग़ज़ल
तेरे बारे में जब सोचा नहीं
था.
मैं पागल था, मगर इतना नहीं
था.
समन्दर से निकल आया मैं
बचकर,
तेरी आँखों में जब डूबा
नहीं था.
पुकारा ना मेरी खुद्दारियों
ने,
तुझे अय दोस्त मैं भूला
नहीं था.
मैं पहुँचा रूह तक माना ये
तूने,
जहां पहले कोई पहुँचा नहीं
था.
चला बाज़ार में मैं कुछ
दिनों तक,
मैं सिक्का तो मगर खोटा
नहीं था.
तलाशेंगे मुझे खो जाने पर
ये,
जो कहते हैं कि मैं अच्छा
नहीं था.
ये माना सांसें चलती थी ये
मेरी,
मगर ये सच कि मैं ज़िन्दा
नहीं था.
सभी ने देखा मुझको बाहरी ही,
किसी ने भीतरी देखा नहीं
था.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात
ता.२३-०३-२०१५
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