ग़ज़ल
कभी जो
नाता था तुझसे, वो कब का
तोड़ दिया.
तेरी गली
तो क्या, तेरा शहर
भी छोड़ दिया .
क़फ़स में
सांस भी लेने में दिक्कतें थी बहुत,
अना ने
हमको भी अंदर से फिर झिंझोड़ दिया.
दिखाया
अक्श जो उसको, तो ये
सज़ा दी मुझे,
जुनूं में
हाथ से आईना, उसने फोड़
दिया.
परों को
काट, वो पंछी
की ज़ुबा सिलता था,
उड़ान
भरने पे गर्दन को फिर मरोड़ दिया.
गुलाब
ज़ख़्मों के महकें न क्यों हमारे अब ?
लहू जिगर
का सभी,लफ़्ज़ों
में निचोड़ दिया.
डॉ. सुभाष
भदौरिया गुजरात ता.02-01-2018
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें