ग़ज़ल
होंठ से होंठ ये कहना चाहें .
बिन तेरे अब न ये रहना चाहे .
जिस्म में उठ रहीं हैं लहरें अब ,
साथ मिलकर तेरे बहना चाहे.
बंद आँखें ये कहे देती हैं ,
तेरी बाहों का ये गहना चाहें .
साथ बांटेंगे सभी खुशियों को,
ग़म भी हम साथ में सहना चाहें .
कोई दीवार न अब बाकी रहे ,
सारी दीवारें ये ढहना चाहें.
डॉ. सुभाष भदौरिया,अहमदाबाद ता.13-11-07 समय-11.20 AM
होंठ से होंठ ये कहना चाहें .
बिन तेरे अब न ये रहना चाहे .
जिस्म में उठ रहीं हैं लहरें अब ,
साथ मिलकर तेरे बहना चाहे.
बंद आँखें ये कहे देती हैं ,
तेरी बाहों का ये गहना चाहें .
साथ बांटेंगे सभी खुशियों को,
ग़म भी हम साथ में सहना चाहें .
कोई दीवार न अब बाकी रहे ,
सारी दीवारें ये ढहना चाहें.
डॉ. सुभाष भदौरिया,अहमदाबाद ता.13-11-07 समय-11.20 AM
भाव अच्छे है. आपके पास अभाव तो है नही
जवाब देंहटाएंअति सुंदर प्रस्तुति. मनमोहक.लाजवाब.
जवाब देंहटाएंबंद आँखें ये कहे देती हैं ,
जवाब देंहटाएंतेरी बाहों का ये गहना चाहें .
बहुत सुंदर भाव. वाह.वाह
आप तो स्वयं गुणी हैं और क्या कहूँ?
नीरज
बंद आँखें ये कहे देती हैं ,
जवाब देंहटाएंतेरी बाहों का ये गहना चाहें
बहुत खूब...
सहजता से आपने प्रेम के अहसास को व्यक्त किया है।
बसन्तजी,बालकिशनजी,नीरजजी मनीशजी
जवाब देंहटाएंआप सभी की दाद मुझ गरीब की दौलत है.
मैं जानता हूँ कविता लिखने वाले से उसे समझने वाले का दर्जी ऊँचा होता है.सुधी पाठक ही रचनाकार का सहारा होते हैं.बस गरीबखाने पर आते जाते रहिए.
ये कोमेंट है आपकी ७-१२-२००७ को पोस्ट कि गई गजल के लिए.
जवाब देंहटाएंसुंदर! अति सुंदर!
ये बात आपकी गजल के साथ साथ तस्वीर पर भी लागु होती है. आप बहुत कम लिखते है. ऐसा क्यों?
आज मैंने भी एक गजल लिखी है. पोस्ट भी कर चुका हूँ. उसपर (सिर्फ़ कमियों पर ) आपकी राय कि प्रतीक्षा है.