शुक्रवार, 7 दिसंबर 2007

हँस के जन्नत लुटायी फिर उसने.

ग़ज़ल

वो तो ख़ुश्बू की तरह आया था .
दिल कहाँ उसको समझ पाया था.

होश अपने कहाँ रहे बाकी ,
देख कर जब वो मुस्कराया था.

हँसके जन्नत लुटायी फिर उसने,
पहले पहले तो वो शर्माया था.

आज तक इस पे दिल पशेमा है,
उसका भूले से दिल दुखाया था .

शीश-ए-दिल के कर लिए टुकड़े,
हमने पत्थर से दिल लगाया था.

खींचली दुश्मनों ने तलवारें ,
वो महज ख़्वाब में ही आया था.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.07-12-07 समय-11-45PM