सोमवार, 28 जनवरी 2008

बेटियों के ही बाप जाने हैं.

ग़ज़ल
अबकी तन्हाइयाँ ग़ज़ब की हैं.
दिल की अंगड़ाइयाँ ग़ज़ब की हैं.

देखने में तो साथ साथ मगर,
बीच में खाइयाँ ग़ज़ब की हैं.

बेटियों के ही बाप जाने हैं,
बजती शहनाइयाँ ग़ज़ब की हैं.

पंक्षीओं की जुबां पे ताले हैं,
अब तो अमराइयाँ ग़ज़ब की हैं.

तुम भी डूबो तो जान जाओगे,
ग़म की गहराइयाँ ग़ज़ब की है.

ज़िक्र होता है उनकी महफ़िल में,
अपनी रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हैं.

हाथ रखती हैं रात में सर पर,
माँ की परछाइयाँ ग़ज़ब की हैं.
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.28-01-08 समय-07-25PM










5 टिप्‍पणियां:

  1. कमाल किया है सुभाष भाई. क्या शेर कहे हैं.
    "ग़म ही बख्शेगा है इश्क है आख़िर
    मगर रानाईयाँ गज़ब की हैं ......"
    शुक्रिया आप का

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  2. पूरी रचना अच्छी है, लेकिन दो लाइनें गजब की हैं-
    बेटियों के ही बाप जाने हैं,
    बजती शहनाइयाँ ग़ज़ब की हैं.

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  3. हाथ रखती हैं रात में सर पर,
    माँ की परछाइयाँ ग़ज़ब की हैं.
    bahut khoob

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  4. bahut khoob!
    bahut badiya likha hai!

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  5. बेहतरीन है !

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