ये तस्वीर मोहतरमां तस्लीमाजी की है जो हमारे देश में जलावतन हैं.
ये ग़ज़ल उन्हें पूरे एहतिराम और अख़लाक़ के साथ उन्हीं के नाम.
ग़ज़लया इधर जाऊँगी, या उधर जाऊँगी.
सोचती हूँ अभी तक किधर जाऊँगी.
क़ैद से अपनी यों, तू न आज़ाद कर,
तुझसे बिछुड़ी अगर, तो मैं मर जाऊँगी.
आतिशों में जला या तू बनवास दे,
मैं तो सोना हूँ तप कर निखर जाऊँगी.
आईना हूँ तेरा ,बन सँवर ले जरा,
हाथ से जो गिरी तो बिखर जाऊँगी.
ऐक गगरी हूँ मैं, कब से रीती पड़ी,
प्यार से मुझको छू देख भर जाऊँगी.
सारे दीपक बुझा दे मगर,इतना सुन,
कोई बच्ची नहीं जो मैं डर जाऊँगी.
शान सारी ठिकाने लगा दूँगी में,
हद से अपनी अगर मैं गुज़र जाऊँगी।
सोचती हूँ अभी तक किधर जाऊँगी.
क़ैद से अपनी यों, तू न आज़ाद कर,
तुझसे बिछुड़ी अगर, तो मैं मर जाऊँगी.
आतिशों में जला या तू बनवास दे,
मैं तो सोना हूँ तप कर निखर जाऊँगी.
आईना हूँ तेरा ,बन सँवर ले जरा,
हाथ से जो गिरी तो बिखर जाऊँगी.
ऐक गगरी हूँ मैं, कब से रीती पड़ी,
प्यार से मुझको छू देख भर जाऊँगी.
सारे दीपक बुझा दे मगर,इतना सुन,
कोई बच्ची नहीं जो मैं डर जाऊँगी.
शान सारी ठिकाने लगा दूँगी में,
हद से अपनी अगर मैं गुज़र जाऊँगी।
डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.ता.24-02-08समय-9-50pm.
क्या बात है बहुत सुन्दर बेहतरीन गज़ल!
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