ग़ज़ल
भग रहे, पिट रहे, रो रहे हैं.
बेबसों पर ज़ुल्म हो रहे हैं.
मुंबई सिर्फ है अब हमारी,
बीज नफ़रत के वो बो रहे है.
टांग में टांग देखो फ़साये,
चूतिये चैन से सो रहे हैं.
पहले मसले कहां कोई कम थे,
रोज़ मसले खड़े हो रहे हैं.
शेर ने मुस्करा के कहा ये,
अब तो बच्चे बड़े हो रहे हैं.
मर्द की अब हुकूमत कहाँ है,
हम तो हिजड़ों को ही ढो रहे हैं.
बन के बारूद अब फट ना जाये,
लोग धीरज सभी खो रहे हैं.
डॉ.सुभाष भदौरिया,ता.10-02-08 समय-5-25PM
भग रहे, पिट रहे, रो रहे हैं.
बेबसों पर ज़ुल्म हो रहे हैं.
मुंबई सिर्फ है अब हमारी,
बीज नफ़रत के वो बो रहे है.
टांग में टांग देखो फ़साये,
चूतिये चैन से सो रहे हैं.
पहले मसले कहां कोई कम थे,
रोज़ मसले खड़े हो रहे हैं.
शेर ने मुस्करा के कहा ये,
अब तो बच्चे बड़े हो रहे हैं.
मर्द की अब हुकूमत कहाँ है,
हम तो हिजड़ों को ही ढो रहे हैं.
बन के बारूद अब फट ना जाये,
लोग धीरज सभी खो रहे हैं.
डॉ.सुभाष भदौरिया,ता.10-02-08 समय-5-25PM
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