
ये ग़ज़ल में उसी की पुकार है प्रभू. तथास्तु.
ग़ज़ल
इस बार दिवाली को, हम ऐसे सजायेंगे..
अब दीप नहीं अपने , दुश्मन को जलायेंगे.
हिन्दू को कतल करके, जो ईद मनाये हैं,
वो घर में मुहर्रम भी, अब ज़ल्द मनायेंगे.
सड़को पे हमारी जो, बारूद बिछाते हैं,
सड़कों पे उन्हीं को हम, अब फिर से बिछायेंगे.
जो आग लगाई है कुछ वहशी दरिन्दों ने ,
उस आग को उनके ही, हम खूँ से बुझायेंगे.
ख़ामोश अभी हैं, तो बुज़दिल न समझ लेना,
बिगड़े जो कहीं फिर से सब, शोर मचायेंगे.
विषधर तो हमेंशा से, भोजन हैं हमारे ये,
ये जितने मदारी हैं, हम उनको बतायेंगे.
करते हैं तमाशा, जो हर रोज़ मेरे आगे,
हम फिर से क़यामत का अहसास करायेंगे.
डॉ.सुभाष भदौरिया, ता.31-08-08 समय- 11.50PM
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