रविवार, 12 अक्तूबर 2008

इल्ज़ाम मुसल्मां पर ही क्यों हर वक्त लगाये जाते हैं.

ग़ज़ल
गर्दन भी उतारी जाती है, और हाथ कटाये जाते हैं.
ख़ामोश रहें कुछ न बोलें, गूंगे भी बनाये जाते हैं.
बेचा है वतन को किसने ये, बिजली के बहाने बोलो तो ?
इल्ज़ाम मुस्लमां पर ही क्यों हर वक्त लगाये जाते हैं.
हम खूब समझते हैं उनको, हम उनकी अदा पहिचाने हैं,
मौसम के तक़ाज़े पे अपने भी भेंट चढ़ाये जाते हैं.
क़ातिल भी वही मुंसिफ़ भी वही, इंसाफ़ हमारा क्या होगा,
कमज़र्फ़ सियासतदानों को आईना दिखाये जाते हैं.
चहुँओर मची मारा काटी, चहुँओर जलाने के चर्चे,
हम जैसे दिवाने जाने क्यों,अश्कों को बहाये जाते हैं.
हम ईद पे जाते थे मिलने, होली वो मनाने आते थे,
अब खूँन बहा इक दूजे का त्यौहार मनाये जाते हैं.
फ़ाँसी पे चढ़े थे हँसकर के, सीने पे भी गोली खायीं थीं,
इतिहास बुज़र्गों का अपने हम लोग भुलाये जाते हैं.
हमसे तो कहा है ज़ालिम ने, तुम रुख़ न करो इन गलियों का,
सीने से लगाकर सांपों को अब लाड़ लड़ाये जाते हैं.
जो जान छिड़कते थे हम पर,जो हम से लिपटकर मिलते थे,
देखो तो ज़रा वो ज़ुहराजबीं नज़रों को चुराये जाते हैं.
तितली औ गुलों के शैदाई ये बात भला क्या समझेंगे,
मज़लूम व मुफ़लिस लोगों पर हम जान लुटाये जाते हैं.
डॉ.सुभाष भदौरिया, ता.12-10-08 समय-10-10AM










10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया व सामयिक रचना है।बधाई स्वीकारें।

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  3. ग़ज़ल बहुत अच्छी है पर शीर्षक तंगदिल है.

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  4. विवेकजी आपकी नसीहत काम कर गयी सो भाषा की शुद्धता का श्रेय आपको है आपकी पिछली टिप्पणी के कारण ही ये कमाल हुआ है यकीन करें.
    हमारे गुजराती भाषी की ग़ज़लों के बड़े शायर शून्य पालनपुरी ने कहा है कि रचनाकार से बड़ा दर्जा पाठक का होता है वे ही रचनाकार को संवारते हैं मैं इस हक़ीकत को समझता हूँ पर लहूलुहान मंज़र हो दोगली मानसिकता तो बयान में तल्खी आ ही जाती और लाख संभालने पर भी कुछ शब्दों का सायास प्रयोग कर जाता हूँ आशा है आप क्षमा करेंगे और हिदायतें देते रहेंगे.धन्यवाद.

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  5. परमजीतजी आपकी मुहब्बत का शुक्रगुज़ार हूँ.कहीँ
    आपकी आदत न पढ़ जाये हुजूर.

    आपके ब्लागपर पंजाबी भाषा का जादू देखा.
    पंज़ाबी के बहुत बड़े शायर शिवकुमार बटालवी की ग़ज़ल याद आगयी-
    मैनू तेरा शबाब ले बैठा.
    रंग गोरा गुलाब कर बैठा.
    मैनू जस दी तुसी याद आयी,
    दिन दिहाड़े शराब ले बैठा.
    मैनू जस दी मिली फुरसतदा,
    तेरी मुखदी किताब ले बैठा.
    एक एन.सी.सी केम्प में पंजाब से आये एक आफीसर ने ये ग़ज़ल तीन साल पहले सुनाई थी.
    भाई मेरे इस शायर में बहुत कशिश है क्या उनका कुछ आप पढ़वा सकते हैं.

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  6. गुप्ताजी आपकी टिप्पणी ग़ज़ल बहुत अच्छी है पर शीर्षक तंग दिल है से क्या कहना चाहते हैं श्रीमान जिसे आप शीर्षक कहक रहे है वह ग़ज़ल के शेर का सानी मिसरा है(दूसरी पंक्ति)
    जैसे-
    बेचा है वतन को किसने ये बिजली के बहाने बोलोतो
    इल्ज़ाम मुस्लमां पर ही क्यों हर वक्त लगये जाते है.
    कथ्य साफ है.
    शीर्षक तंग दिल नहीं साफ दिल है
    आप कौन सी सियासत कना चाहते हैं आपके ब्लाग पर आप के लेख में आपने खुद ही लिखा है किसी एक कौम को मुल्क की बरबादी के लिए जिम्मेदार ठहरान उचित नहीं है बस इतनी सी बात है गुप्ताजी.
    मैने इसी बात को ग़ज़ल की विधा में कहा है.

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  7. क्यूंकि यही तो उनका राष्ट्रवाद है...

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  8. जहे नसीब,
    आपका इस्तक़बाल कैसे करें.हमें न तो अदब का इल्म ही है न समझ फिर भी चंद सवाल करने की इजाज़त अता फ़र्मायें.
    क्या आपकी दर्दगाह में हम जैसे लोगों के लिए भी कोई जगह है जो मुसल्मा नहीं फिर भी हुक्मरानों की साज़िश का शिकार हैं.क्या महज़ हमें इसलिए मारा जा रहा है कि हम हिन्दू हैं पैदा होना किसी के हाथ में है क्या.
    हम बेबस लाचार लोग रिज़्क की तलाश में घर से निकलते है पता नहीं होता कि घर वापिस लौटेंगे या नहीं.अभी तक सोफ्ट टारगेट ही क्यों जद में हैं.

    अभी तक वारदात जो भी हुई हों हलाक हमेशा लाचार बेबस लोग ही हुए है वो किसी भी पक्ष के हों.कभी हम बदकिस्मत लोगों पर भी अपना सर पर हाथ रक्खे.हमें आपका राष्ट्रवाद भी समझ में आजायेगा.आमीन.

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  9. चहुँओर मची मारा काटी, चहुँओर जलाने के चर्चे,
    हम जैसे दिवाने जाने क्यों,अश्कों को बहाये जाते हैं.

    डॉ.साहेब, लगता तो यही है के यह शेर उस दर्दनाक वाक़ए की तरफ़ इशारा कर रहा है जिस पर हमने आज एक तहरीर लिखी है.
    डॉ.साहेब, यकीं जानिए के आप जैसे ही आला-ज़र्फ़ लोगों का सहारा है के हम इंसाफ़ की उम्मीदें क़ाइम रखते हैं.

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