मंगलवार, 19 मई 2009

हम किताबें ही नहीं, दिल भी पढ़ा करते हैं.

ग़ज़ल
हम किताबें ही नहीं, दिल भी पढ़ा करते हैं.
दस्तख़त वक्त के सीने पे जड़ा करते हैं.

आँखें बरसे हैं तो थोड़ा ये सुकूँ मिलता है,
दिल के सीमेन्ट को इस तरह कड़ा करते हैं.

सीढ़ियाँ फ्लेट की चढ़ने में उखड़ती सांसें,
लिफ्ट से लोग तो हँस-हँस के चढ़ा करते हैं.

हमको देंगें ये बुढ़ापे में सहारा इक दिन,
लोग ये सोच के बच्चों को बड़ा करते हैं.

आप से कैसे बनेगी ये बताओ तो ज़रा ?
हम अकेले में ख़ुदी से भी लड़ा करते हैं.

वक्त आने पे पड़ेगी ही ज़रूरत इनकी,
हम तो लफ्ज़ों के भी हथियार गढ़ा करते हैं.

लोग समझें हैं ग़ज़ल खेल फकत शब्दों का
ग़ज़ल के शीशे में हम ज़ख्म मढ़ा करते हैं.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.19-5-09 समय 11-15AM














5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छे सर...हम अच्छी रचना.. पर दाद दिया करते है...

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  2. वाह ! वाह ! वाह ! लाजवाब !
    यथार्थ को कितनी सुन्दरता से ग़ज़ल के माध्यम से आपने रेखांकित किया है...
    हर शेर कबीले दाद है...

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  3. रजनीशज जी व रंजनाजी आपका इस्तक़बाल करने के लिए हमारे पास सिर्फ़ अल्फ़ाज़ हैं.बकौले ग़ालिब -

    जहां तेरे नक्शे कदम देखते हैं.
    ख़िरामा ख़िरामा इरम देखते हैं.
    आते रहिए- सरकार

    ख़िरामा ख़िरामा-हौले हौले-
    इरम-स्वर्ग

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  4. ujala to aap hamare dilon me kar rahe hai, aise hi likhte rahiye.

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  5. सीमेंट और फ्लेट जैसे इंग्लिश के शब्दों का प्रयोग सफल रहा

    अच्छी गजल

    वीनस केसरी

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