
दूसरी जी में आये सज़ा दीजिए.
छोड़िए छोड़िए सारे शिकवे-गिले,
हो सके तो ज़रा मुस्करा दीजिए.
पास हैं आज तो आप उखड़े हुए,
दूर जायें तो फिर ना सदा दीजिए.
थम न जायें कहीं आशिकी में कदम,
थोड़ा थोड़ा सही हौसला दीजिए.
मर न जाये कहीं तेरी चाहत में ये,
अपने बीमार को कुछ दवा दीजिए.
दुश्मनों की न बातों में यूँ आइये,
क्या ख़ता है हमारी बता दीजिए.
आप मुंसिफ़ सही हम गुनहगार हैं,
फैसला जो भी हो अब सुना दीजिए.
डॉ. सुभाष भदौरिया ता.13-12-09
अपनी नज़रों से यूँ ना गिरा दीजिए.
जवाब देंहटाएंदूसरी जी में आये सज़ा दीजिए.
waah.........behtreen alfaz........sundar nazm.
बहुत सुन्दर गजल है।
जवाब देंहटाएंछोड़िए छोड़िए सारे शिकवे-गिले,
जवाब देंहटाएंहो सके तो ज़रा मुस्करा दीजिए
आपने कहा भले इनसे हो लेकिन हम भी मुस्करा रहे हैं और अच्छा लग रहा है।
सुन्दर गजल!
आप मुंसिफ़ सही हम गुनहगार हैं,
जवाब देंहटाएंफैसला जो भी हो अब सुना दीजिए.
kya baat hai ?
bahut khoob !
थम न जायें कहीं आशिकी में कदम,
जवाब देंहटाएंथोड़ा थोड़ा सही हौसला दीजिए
बधाई। अब तो रोज उतर रही है।
आदरणीया वंदनाजी ये ग़ज़ल है जिसे आप नज़्म बता रही है.
जवाब देंहटाएंकैसे ज़रा देखे. ग़ज़ल का अरबी के कसीदे से लेकर फ़ारसी और फिर उर्दू का सफ़र जाना पहिचाना है.इसके बाद हिन्दी गुजराती मराठी पंजाबी तथा अन्य भाषाओं में ग़ज़लें कहीं गयीं.इसका मूल कारण संकेत और संक्षेप में मार्मिक ढंग से कहना ग़ज़ल कला का मुख्य लक्षण.
ग़ज़ल का मतलब होता है औरतों से बातचीत करना.श्रंगार प्रेम विषयक बयान इसमें आते हैं.एक उर्दू के के मौलाना ने तो फ़र्माया है कि ग़ज़ल वो लिखते हैं जिनका चाल चलन ख़राब होता है.
ग़ज़ल की नायिकायें स्वकीया न हो कर परकीया सर्वकीया होती हैं ऐसी मौलाना के बयान से पता चलता है मेरे अपने खयाल से ये खयाली होती हैं जिनकी तलाश शायर को होती है इनका इस लोक में मिलना नामुमकिन है. ये बात हम अपने तजर्बे से कह रहे हैं.ताकि नित नयी रोज़ तस्वीरों को देखकर तंग नज़र लोग अपनी सोच दुरस्त करें.
अब ग़ज़ल के विषय क्षेत्र में भारी परिवर्तन हुए समाज राजनीति व्यंग्य आदि को इसमें उभारा गया है..
फिलहाल परंपरागत रंग श्रंगार को नज़र में रखकर ये ग़ज़लें देखें.
ग़ज़ल का अपना शिल्प है काफिया(प्रास,तुक) रदीफ(शब्द का वह टुकड़ा जो निरंतर आता है और वज़्न यानि मीटर किसी निश्चित बहर (छन्द) का निर्वाह.
अब हम उपरोक्त ग़़ज़ल इन शर्तों पर परखें.
ग़ज़ल की प्रारम्भिक पंक्तियां जिसे मतला कहते हैं इसके दोनो मिसरे (पंक्तियों) में काफ़िया रदीफ होतें है. प्रारम्भ की दोनों पक्तियों को देखें-
अपनी नज़रों से यूँ ना गिरा दीजिए (मतला)
दूसरी जी में आये सज़ा दीजिए.
यहां दीजिए की रदीफ है जो अंत तक के शेरों में निरंतर आ रही है.
गिरा और सज़ा का काफिया इसमें आकारान्त अलिफ का निर्वाह हो रहा है आना जाना खाना बहाना की तरह आकारान्त और ईकारान्त के भी काफिये होते हैं.
जैसें ग़ालिब साहब की मश्हूर ग़ज़ल -
दिलेनादां तुझे हुआ क्या है.
आखिर इस दर्द की दवा क्या है.
यहां हुआ, दवा में आ का काफिया है तथा क्या है कि रदीफ इस्तेमाल की गयी है.
अब शेर-ग़ज़ल का शेर उसे कहते हैं जिसमें पहली पंक्ति मिसरे ऊला(पहली पंक्ति) में काफिया रदीफ नहीं होते पर दूसरी पंक्ति में उनका आना ज़रूरी है.
जैसे उपरोक्त ग़ज़ल का पहला शेर-
छोड़िए,छोड़िए सारे शिकवे गिले,
हो सके तो ज़रा मुस्करा दीजिए.
शायर पांच सात ये उससे अधिक की ग़ज़लें कह सकता है,भर्ती के शेरों से बचना चाहिए.
अब वज़्न किसी भी ग़ज़ल में निश्चित बहर का इस्तेमाल होता है उपरोक्त ग़ज़ल के अरकान इस प्रकार है.
फा इलुन- फा इलुन -फा इलुन - फा इलुन-
2 1 2 2 12 - 2 12 -2 1 2
अप निनज़ -रों सियूँ - ना गिरा - दी जिए (ए को दीर्घ पढ़े.)
दू सरी -जी मंआ - ये सज़ा-- दी जिए.
आसानी के लिए एक फिल्म की मश्हूर ग़ज़ल इसी बहर में देखें.
खुश रहे तू सदा ये दूआ है मेरी.
बेवफा ही सही दिलरूबा है मेरी.
या मश्हूर गीत का वज़्न भी इसी बहर में है-
छोड़दे सारिदुनि यांकिसी केलिए.
येमुना सिबनहीं आदमी केलिए.
उपरोक्त ग़ज़ल के शेर में अरकान (गण)8 बार प्रत्येक पंक्ति में 4 बार आये हैं शेर में फाइलुन के अरकान 8 बार आने से ये उर्दू की मश्हूर बहर बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम है. सालिम का मतलब पूर्ण किसी भी अरकान का ना टूटना.
आदरणीय अनूप शुक्लजी ने फोन पर ग़ज़ल के बारे में कुछ कहने को कहा था फिर वंदनाजी ने ग़ज़ल को जब नज़्म कहा तो ये बाते साफ करनी जरूरी हो गया.
अनूपजी ने हमारी विद्वता के कुछ प्रमाण चाहे हैं.हम ने अपनी मूर्खता के प्रमाण तो बहुत दिये हैं उसमें ब्लाग जगत के ख़लीपा हमारे हुनर से वाकिफ हैं.
बकौले ग़ालिब,
बनाकर फकीरों का हम भेष ग़ालिब,
तमाशा ए अहले करम देखतें हैं.
रही अनूपजी की टिप्पणी की बात सो हमने जिस जोहराज़बी की तस्वीर लगाई हैं.उसके चेहरे के भावों को नज़र में रख कर शेर कहे हैं.
साथ हम से नाराज़ उन पाठकों देवी देवताओं को भी लेकर है जो हमारी पिछली बदमाशियों को लेकर भारी नाराज़ हैं अब वो पुराने शिकवे गिले छोड़कर मुश्करा के हमारे ब्लाग पर आयें तो हमें खुशी होगी.
अनूपजी ये शेर आप जैसे कद्रदानों के लिए भी हैं. तस्वीर मात्र प्रतीक है ये भाव के अनरूप गुग्गल पे सर्च करके ली है हमें इससे ज़्यादा इस वाकविद्ग्धा नायिका का कोई परिचय नहीं.
मधुप दद्दा ग़ज़ल उतरती है आप सही फ़र्मा रहे हैं
ग़ज़ल नाज़िल होती है.आप बहुत ही संज़ीदा हमारे ब्लाग के पाठक हैं.
आप बहुत ही गंभीर सामग्री अपने ब्लाग पर रखते हैं.
आपका हर ज़ुम्ला मेरे लिए नवाज़िश से कम नहीं.
अल्बेला साहब ग़ज़ल खाला का घर नहीं.
एक उम्र इसमें खपानी पढ़ती है फिर भी ये हासिल कहां होता है.
बकौले फ़िराक गोरखपुरी-
उम्र भर का है तजुर्बा अपना,
उम्रभर शायरी नहीं आती.
अपना मामला भी कुछ ऐसा ही है साहब .
आज के लिए इतना काफी है.
बहुत खूबसूरत। आपने गजल के बारे में जानकारी दी। उसमें से कुछ मुझे पता थी कुछ आपने बतायी। बहर की मात्रायें कैसे गिनी जाती हैं इसके बारे में कभी फ़िर तसल्ली से बताइयेगा।
जवाब देंहटाएंहमें आपकी विद्वता के बारे में कभी शक नहीं रहा। आपकी सारी पोस्टें पढ़ते रहे हैं हम और आपके हुनर के कायल होते रहे। आशा है आगे आपसे कुछ और सीख जायेंगे गजल का व्याकरण। अभी तो केवल भाव समझकर मस्त हो लेते हैं।फ़िर शायद गजल की बारीकियां भी समझ सकें।
सुभाष जी आपकी इस ग़ज़ल पर आपकी नयी ग़ज़ल पढने के बाद में आया हूँ याने उल्टा चल रहा हूँ...बुढ़ापे में मति मारी जाती है इसका इस से अच्छा और क्या प्रमाण दूं...आपने बेहद खूबसूरत अंदाज़ में ग़ज़ल कही है...आप उस्ताद शायर हैं और आपकी ग़ज़ल पर टिपण्णी करने के लिए कलेजा चाहिए...एक आम पाठक की हैसियत से कहता हूँ की छोटे छोटे लफ़्ज़ों में आपने गहरी गहरी बातें कहीं हैं...वंदना जी के चलते हमारे ज्ञान में भी वृद्धि हुई इसके लिए आपको नहीं उनको धन्यवाद देता हूँ न वो ग़ज़ल को नज़्म कहतीं और न आप का ग़ज़ल के बारे में लिखा हम तक पहुँचता...
जवाब देंहटाएंअब और पीछे लौट रहा हूँ...इंतज़ार करें...
नीरज