ये कैसी इनायत है, ये कैसा दिलासा है.
रौनक तो शहर में है, और गाँव बुझा सा है.
करता है तमाशे वो, सड़कों पे नये हर रोज़,
वैसे तो मदारी है, समझे वो ख़ुदा सा है.
तुम नाम लो उसका, मत बात करो उसकी,
फ़ितरत में ज़हर उसकी, बातों में दवा सा है.
अल्फ़ाज़ में जलने की ये गंध क्यों आती है,
अरमान कोई भीतर,अपने ये जला सा है.
पिंजड़े में परिन्दे की परवाज़ हुई गुम है,
दानों की बदौलत ही, हर सिम्त फँसा सा है.
खु़श्बू पे बहुत अपनी, इतरा के न चल ज़ालिम,
अंदाज़ हमारा भी, फिर तेज़ हवा सा है.
ग़ज़लों को मेरी सुनकर, धीरे से कहा उसने,
है तल्ख़ ज़बां उसकी, इंसान भला सा है.
डॉ.सुभाष भदौरिया
गुजरात .
बहुत अह्ची रचना है आपकी
जवाब देंहटाएंबधाई
so nice sir, i am impress to your blog....so very very good
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