ग़ज़ल
मर रहे कट रहे रो रहे हैं.
देश पर अब ज़ुल्म हो रहे हैं.
मर्द की अब हुकूमत कहां है ?
हम तो हिजड़ों
को ही ढो रहे हैं.
टांग में
टांग देखो फँसाये,
दोगले चैन
से सो रहे हैं.
रोशनी का
भरम दोस्तो है,
सब अँधेरों
को ही बो रहे हैं.
बन के बारूद
अब फट न जायें,
लोग धीरज
सभी खो रहे हैं.
देश की सीमा की रक्षा करते हुए फिर देश के सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी है. कभी हमारे सैनिकों के सर काट कर सीमा पर ले जाये जाते हैं.कभी सीमा में घुस कर घात लगा कर हलाक किया जाता है.
सब गाल बजा कर रह जाते हैं.एक्शन कुछ नहीं होता. पूरा देश अब सारे ज़ख़्मों का हिसाब चाहता हैं कौन करेगा ये हिसाब.
वक्त सौ मुंसिफ़ो का मुसिफ़ है वक्त आयेगा इंतज़ार करो.
व्यंग्य के माध्यम से अपनी बात कहना भी कला है , बधाई
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