ग़ज़ल
तेरे बारे में अब सोचता भी नहीं.
और ये भी है सच भूलता भी नहीं.
तेरी तस्वीर तो देखता हूँ मगर,
पहले की तरह अब चूमता भी नहीं.
काट लेता हूँ तन्हाइयों का नर्क,
तेरी गलियों में अब घूमता भी नहीं.
रूठने और मनाने के मौसम गये,
मुद्दतों से मैं अब रूठता भी नहीं.
इस मुसाफिर पे कुछ भी बचा ही नहीं,
सोचकर ये कोई लूटता भी नहीं.
खूँन की अपनी खुद्दारियां न गयी,
दरबदर तो हूँ पर टूटता भी नहीं.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात.
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल..
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