ग़ज़ल
कभी इसने मार ली, तो कभी उसने मार ली.
लुच्चों ने मेरे मुल्क
की चड्डी उतार ली.
हिन्दू या मुस्लमान मरें
उनको क्या पड़ी,
गीधों ने भेड़ियों ने
तो किस्मत संवार ली.
तुम अपनी अपनी ख़ैर मनइयो
अय दोस्तो,
रो धो के सही हमने तो
अपनी गुज़ार ली.
मज्बूरियां न पूछ तू, जीने की सितमगर,
बच्चों की फीस बैंक से
हमने उधार ली.
सुवरों को आइना जो दिखाया
तो ये हुआ,
मिलकर सभी ने अपनी तो
गर्दन उतार ली.
धड़ लड़ रहा है आज भी
मैंदाने जंग में,
ज़ख़्मों से हमने अपनी तो तबियत सुधार ली.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात.
सभी एक से बढकर एक हैं डा साहब , सीधा और सन्नाट । भीतर तक पैवस्त होते हुए से .........
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अजयजी साधु ये मुर्दों का देश में एक तो ज़िन्दा मिला
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