ग़ज़ल
काम आसां दुशासन का अब
हो गया,
वस्त्र खुद द्रौपदी अब उतारे यहां.
बेच डाली हया उसने
खुद देखिये,
कृष्ण को कोई अब ना पुकारे यहां.
तीर अर्जुन के अब
सारे नाकाम हैं,
भीष्म आचार्य भी अब सभी मौन हैं,
बात सारी बिगाड़ी है
शुकनि ने जब,
फिर युधिष्ठर भी कैसे संवारे यहां.
अब अँधेरों का ये
दौर है दोस्तो,
रोशनी का गला घोंट देते हैं वे,
वो डिनर, लंच लेते
बड़ी शान से,
रूखी सूखी पे सब दिन गुज़ारे यहां.
धूम फिक्सम की है अब
तो चारों तरफ,
स्वर्णिम स्वर्णिम वो गायें ग़जब देखिये,
आँख और कान पर पट्टी
बांधे हैं वो,
सच को कह कह के अब हम तो हारे यहां.
उड़ रहा आसमां में
उसे क्या पता,
कितने खड्डे सड़क पर हुए आजकल,
देश तो खुद सुधर
जायेगा देखना
पहले खु़द को वो अपने सुधारे यहां.
डॉ. सुभाष भदौरिया
गुजरात ता.13-02-2014
उम्दा.
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