सोमवार, 30 जून 2014

हाथ उनके क़ुरान दे मौला.


ग़ज़ल
मेरे लफ़्ज़ों में जान दे मौला.
सबको ऊँची उड़ान दे मौला.

अस्लिहे हाथ जो लिए फिरते,
हाथ उनके क़ुरान दे मौला.

भाईचारा ख़ुलूस बख़्श हमें,
नेकियों का जहान दे मौला.

घुप अँधेरों का क़हर ज़ारी है,
ऱौशनी का निशान दे मौला.

क़ाफ़िला राह बहुत भटके है,
कोई फिर से इमाम दे मौला.

रमज़ान के पावन मास और अपने पहले रोज़े पर ये ग़ज़ल नाज़िल हुई है.
मेरी पोस्टिंग इन दिनो गुजरात के शहेरा नाम के छोटे से कस्बे में हैं.सुब्ह की अज़ान से अक्सर आँख खुल जाती है.आज सुब्ह मस्ज़िद से हो रहे एलान सहरी के वक्त में पन्द्रह मिनिट बाकी है से नींद खुली और तय किया कि आज से हम भी रोज़ा रखें कोलेज में ज़्यादा तरह मुस्लिम विद्यार्थी है वे सभी रोज़े रखते है. रोज़ा खान-पान के साथ अन्य बुराईयों पर फ़तह पाने तथा मज़्लूम मुफ़लिस गरीब लोगों की इमदाद करने का ट्रेनिंग पीरियड है जो साल भर काम आता है.
 सरकारी नौकरी में ट्रांसफर आदि के कारण यूँ भी अक्सर परिवार साथ न होने के कारण आधे दिन का खानपान का रोज़ा तो साल भर रोज़ाना होता ही है. अच्छा कुछ भी सीखने के मेरी फितरत सो रोज़ा के ट्रेनिग आज से शुरु. और ख़ास बात कहते हैं कि इस्लाम में तमाम पवित्र किताबें इसी मास नाज़िल हुईं थी क़ुरान भी. इस ग़ज़ल का मतला तो  दो वर्ष पहले हो गया था पर आज रो़जे के शुरुआत के विचार से इसे मुकम्मल कर सका हूँ ये भी अल्लाह का करम हैं. ये ग़ज़ल अम्न और इंसानियत के नाम है. ईमान वाले इसे समझेंगे आमीन.



डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात तारीख.30-06-2014

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