ग़ज़ल
अब तुझे याद भी नहीं करते.
वक्त बर्बाद भी नहीं करते.
देख मुंसिफ़ की अब तरफदारी,
हम तो फ़रियाद भी नहीं करते.
मेरी गर्दन पे तो रखे हैं छुरी,
ज़ल्द आज़ाद भी नहीं करते.
क़त्ल का देखे हैं तमाशा सब,
कोई इमदाद ही नहीं करते.
लोग लोगों को भून खाते हैं,
दिल को नाशाद ही नहीं करते.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.24-04-2018
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