बुधवार, 18 अप्रैल 2018

कलियों को कुचलता पाँवों से, पत्थर की इबादत करता है.


ग़ज़ल

कलियों को कुचलता पाँवों से, पत्थर की इबादत करता है.
शैतां भी करे ना भूले से, ऐसी वो हिमाक़त करता है.

औलाद ही वाले समझेंगे, औलाद का ग़म क्या होता है,
ख़ामोश वो रहकर के हरदम, क़ातिल की हिमायत करता है.

अब मुल्क में नाचेंगे खंजर, अब मुल्क में बरसेंगे शोले,
वो कौन हमारी लाशों पे, चुपचाप सियासत करता है.

ऐसे  ही नहीं आ जाती हैं, हाथों में हमारे बंदूकें,
अस्मत से हमारे जब कोई छिप छिप के तिजारत करता है.

सर एक है उसके भी सर पे, सर एक हमारे भी सर है,
नैजे पे उठा के सर सब के जो, रोज़ इनायत करता है.

क़ातिल भी वही मुंसिफ़ भी वही, इंसाफ़ हमारा क्या होगा,
ये सोच के अब तो दिल अपना, अब खुल के बग़ावत करता है.



डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात ता.18-04-2018




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