बुधवार, 27 अप्रैल 2016

अपनी मर्ज़ी से कभी पी ही नहीं.


ग़ज़ल

अपनी मर्ज़ी से कभी पी ही नहीं.
ज़िन्दगी हमने कभी जी ही नहीं.

उसने उसकी भी दी सज़ा मुझको,
जो ख़ता मैंने कभी की ही नहीं.

बात अपनी कही सदा उसने,
बात मेरी मगर सुनी ही नहीं.

आँसुओं के तलाब सूख गये,
आँख में अब कोई नमी ही नहीं.

एक तेरी कमी खली है मुझे,
और दूजी कोई कमी ही नहीं.



डॉ. सुभाष भदौरिया. ता.२७-०४-२०१६

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