शनिवार, 15 दिसंबर 2007

हम को मरवाते हरामी साले.

ग़ज़ल

हम को मरवाते हरामी साले।
हैं अमीरों के ये हामी साले .

बैठे साहिल पे तमाशा देखें,
कितने बुज़दिल हैं ये नामी साले.

इज़्ज़तें लुट रहीं हैं सड़कों पर.
देते गुंडों को सलामी साले .

हमको आपस में लड़ाकर हरदम,
कर रहे देखो इमामी साले.

सच को सूली पे चढ़ा देते हैं,
झूट की करते गुलामी साले.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.15-12-07 समय-5-38AM





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें