ग़ज़ल
इक उम्र हुई हमको घर अपना बनाने में.
कुछ देर तो होगी ही दुश्मन को गिराने में.
पूछो न मिला क्या है सर ऊँचा उठाने में.
ईनाम हमारे सर रक्खा है जमाने में.
सरहद पे हमारी तुम करते तो हिमाकत हो,
भागोगे कहाँ बोलो, जब लेंगे निशाने में.
कट जाये जो सर अपना, धड़ लडता है मैदा में,
पुरखों का लहू अब भी है अपने ख़ज़ाने में.
तुम लोग अँधेरों, के हामी हो हमें मालूम,
बुझ जाओ न तुम ख़ुद ही कहीं हमको बुझाने में.
कश्मीर की वादी में माना कि वो बहके हैं,
है हाथ तुम्हारा भी ये आग लगाने में.
बाँधे हो लबे साहिल इन रेत के महलों को,
देरी नहीं लगती है तूफान के आने में.
ये बात अलग है कि इक पल को नहीं भूले,
कोशिश तो बहुत की है उस शय को भुलाने में.
चूहों से कहो चूँ चूँ, कर के वो जगाये मत,
ख़तरे हैं बहुत ख़तरे शेरों को जगाने में।
उपरोक्त तस्वीर एन.सी.सी। युनिफोर्म में हमारी यानि केप्टन सुभाष भदौरिया की है हमारे चाहने वाले देखकर खुश हों जलनेवाले जलें आमीन.
ता.10-11-08 समय-10-45AM.
ता.10-11-08 समय-10-45AM.
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