ग़ज़ल
फूलों के ज़माने बीत गये, जूतों के ज़माने आये हैं.
अहसास हमारे ज़ख्मों का, हम उनको कराने आये हैं.
टायर को गलों में लटकाकर, ज़िन्दा जलवाया था जिसने,
अफ़सोस हमारे क़ातिल को देखो वे बचाने आये हैं.
चीखों को नहीं भूले अब तक, माँ-बाप गवायें हैं हमने,
दिल्ली में हुआ था क्या-क्या कुछ, वो हमको भुलाने आये हैं.
हाथों से कलम फिर छूट गयी, सारी मर्यादा टूट गयी,
शोलों को दुबारा शह देकर हमको वो जलाने आये हैं.
सूली पे चढ़े थे हँसकर के, खायीं थी भी गोली सीने में,
इतिहास बुज़र्गों का अपने,हम याद दिलाने आये हैं.
आदाब, ख़ुलूस, वफ़ादारी, हमको समझाते हैं हरदम,
शासन भी रहे अनुशासन में, ये ही समझाने आये हैं.
उपरोक्त तस्वीरों को बी.बी.सी. पर देखकर ये ग़ज़ल नाज़िल हुई है. आप इसी पसमंज़र में उसे देखें आमीन.
डॉ.सुभाष भदौरिया. ता.08-04-09 समय.935PM
फूलों के ज़माने बीत गये, जूतों के ज़माने आये हैं.
अहसास हमारे ज़ख्मों का, हम उनको कराने आये हैं.
टायर को गलों में लटकाकर, ज़िन्दा जलवाया था जिसने,
अफ़सोस हमारे क़ातिल को देखो वे बचाने आये हैं.
चीखों को नहीं भूले अब तक, माँ-बाप गवायें हैं हमने,
दिल्ली में हुआ था क्या-क्या कुछ, वो हमको भुलाने आये हैं.
हाथों से कलम फिर छूट गयी, सारी मर्यादा टूट गयी,
शोलों को दुबारा शह देकर हमको वो जलाने आये हैं.
सूली पे चढ़े थे हँसकर के, खायीं थी भी गोली सीने में,
इतिहास बुज़र्गों का अपने,हम याद दिलाने आये हैं.
आदाब, ख़ुलूस, वफ़ादारी, हमको समझाते हैं हरदम,
शासन भी रहे अनुशासन में, ये ही समझाने आये हैं.
उपरोक्त तस्वीरों को बी.बी.सी. पर देखकर ये ग़ज़ल नाज़िल हुई है. आप इसी पसमंज़र में उसे देखें आमीन.
डॉ.सुभाष भदौरिया. ता.08-04-09 समय.935PM
congress ke muh pe tamach ! bahut achchey
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