सोमवार, 17 जून 2013

ख़त लिखे रोज़ तुझको मगर क्या कहें,

ग़ज़ल

तुझ पे जीते रहे तुझ पे मरते रहे.
हम ग़ज़ल में तुझे याद करते रहे.

ख़त लिखे रोज़ तुझको मगर क्या कहें,
तेरे हाथो में देने से डरते रहे.

ये अलग बात तूने न डाली नज़र,
तेरी ख़ातिर ही तो हम सँवरते रहे.

खिड़िकियों से न झाँका कभी भूलकर,
तेरी गलियों से तो हम गुज़रते रहे.

आँधियाँ ग़म की चलती रहीं उम्रभर,
सूखे पत्तों से हम तो बिखरते रहे.

तेरी यादों का भी था समन्दर कोई,
डूबकर और भी हम निखरते रहे.

डॉ. सुभाष भदौरिया.






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