ग़ज़ल
दूर मुझसे मेरी ज़िन्दगी हो गयी.
मेरी चाहत में कोई कमी हो गयी.
जिनकी आँखों में रहते थे हम रात दिन,
उनको देखे हुए इक सदी हो गयी.
उसका चेहरा मुझे याद क्या आ गया,
दिल के खंडहर में फिर रौशनी हो गयी.
एक टूटा हुआ मैं शिकारा हुआ,
वो उफनती हुई इक नदी हो गयी.
ख़्वाब में आज आया वो जोहराज़बी,
ख़्वाहिशों की जमी फिर हरी हो गयी.
बात करना उसे आ गया आजकल,
उसकी पक्की कहीं नौकरी हो गयी.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात.
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