ग़ज़ल
कोई चाय बेचता है,
कोई खाँसी खा रहा है.
कोई मम्मी मम्मी कह के
दिल को लुभा रहा है.
हमने किया भरोसा जिस
जिस भी बागबां पर,
देखो तो वो ही हमको
चूना लगा रहा है.
गांधी, पटेल की तो
बातें हैं सिर्फ यारो,
कुर्सी का खेल क्या
क्या अब गुल खिला रहा है.
इस रौशनी ने सब की
आँखें ही छीन ली हैं,
अँधों को रास्ता अब
अँधा दिखा रहा है.
सहमा है हर परिन्दा
शाखें ही छिन गयीं अब,
दानों की नहीं परवाह
जां को बचा रहा है.
कुत्तों का संघ काशी
पहुँचेगा किस तरह से,
इक दूसरे को देखो वो
नोंचे जा रहा है.
डॉ.सुभाष भदौरिया
गुजरात ता.23-01-2014
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