सोमवार, 6 जनवरी 2014

रात भर चैन से वो तो सोते रहे.

ग़ज़ल
रात भर चैन से वो तो सोते रहे.
और हम थे कि अँखियाँ भिगोते रहे.

ख़ूँन ज़ख़्मों से रिसता रहा उम्र भर,
बेवफ़ा दोस्त नश्तर चुभोते रहे.

चाँदनी अपनी किस्मत में थी ही कहाँ ?
जो भी तारे मिले वो भी खोते रहे.

ये अलग बात डूबे नहीं आज तक,
यूँ समन्दर तो हम को डुबोते रहे.

कत्ल के दाग मिटते कहां हैं मगर,
यूँ तो दामन को वो रोज़ धोते रहे.

कोई सच के भी हक़ में करे फैंसला,
यूँ तमाशे तो रोज़ाना होते रहे.

 डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात.ता.06-01-2013



2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर व् सार्थक अभिव्यक्ति .नव वर्ष २०१४ की हार्दिक शुभकामनायें .

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  2. शुक्रिया शालिनीजी.आपको भी नव वर्ष की शुभकामनायें.

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