ग़ज़ल
उम्र-भर वो मेरा दिल दुखाते रहे.
हम ग़मों को गले से लगाते रहे.
दिल तवाइफ़ का कोठा था अपना कोई,
लोग आते रहे लोग जाते रहे.
ये अलग बात उसने सुना ही नहीं,
दर्दे-दिल तो बहुत हम सुनाते रहे.
यूँ अकेले में रोये बहुत फूटकर,
महफ़िलों में मगर मुस्काते रहे.
आग थी कोई हमको जलाती रही,
आग से आग हम भी बुझाते रहे.
ज़िंदगी क्या थी ये पूछिये मत हमें,
लाश कांधों पे अपनी उठाते रहे.
जिन के दिल मंदिर और मस्ज़िद हों उनके लिए ये ग़जल नहीं हैं
उन्हें अगर नागवार गुज़रे तो वे यहाँ से शौक़ से तशरीफ़ ले जा सकते हैं.
साथ ही उपरोक्त
तस्वीर देश के विभाजन पर बनी बेहद दर्दनाक फिल्म
बेगमज़ान की है. इस विभाजन में इंसान कहलाने वाले लोग ही तबाह नहीं हुए वो खाकसार तवाइफ़
भी हुईं जिनका शुमार इंसानों में नहीं किया जाता.
देश के हुए भारत-पाकिस्तान का दर्द मेरा उस समय और बढ़ गया था जब कॉलेज
के छात्रों के प्रवास में गुजरात की समुद्री सीमा पर सटे कोटेसर जाना हुआ था.
सीमा सुरक्षा दल की चौकी के बोर्ड
पर पढ़ा आगे जाना माना है. पता चला वहां से करांची का मात्र आधे घंटे का सफ़र था. आगे का देश जो
कभी हम सब का था वो पाकिस्तान हो गया था. न वो आ सकते ना हम जा सकते.
हमारे सियासतदानों का कितने पाकिस्तान बनाने का खेल अभी भी
ज़ारी है इसमें कुछ इज़ाफ़ा भी हुआ है. अब तो इन सियासत दानों ने अपने सिंहासन
बचाने के चक्कर में ख़ुद को ही सर्वोच्च समझ लिया है. हमें आपस में लड़ा आग लगाने
वाले ये भूल जाते हैं- आग की आँख में बराबर है फूस का घर भी राजधानी भी.
दीवार पर
दीवार उठाने वाली किसी भी तामील के हक़ में मैं नहीं हूँ. मैं सेतु बनने और बनाने में
विश्वास रखता हूँ और उस पर ही अमल करता हूँ. आप को अपने हक़ हैं जो भी करें,
गुज़ारिश सिर्फ़ इतनी है लोक हित में आँखें खुली रखें.
डॉ.सुभाष भदौरिया तारीख- 09-09-2018
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