ग़ज़ल
रंग इश्क़ में हम तेरे क्या क्या न दिखाते हैं.
कभी थाली बजाते हैं, कभी दीप जलाते हैं .
कोरोना से पहल ही, ये भूख हमें मारे.
उपदेश तुम्हारे अब, कानों ना सुहाते हैं.
बेघर तो कभी के थे, रोज़ी भी गयी अब तो,
ख़ुदगर्ज़ वतन वाले हमको न बुलाते हैं.
सड़कों पे हमें देखो, ये भूख है ले आयी,
साज़िश है किसी के वे इल्ज़ाम लगाते हैं.
हैं पेट भरे जिनके, वे लोग न समझेंगे,
स्क्रीन पे जो आकर, अब गाल बजाते हैं.
है मौत बड़ी ज़ालिम पीछा नहीं छोड़ेगी,
शीशे के वदन वाले, पत्थर को सिखाते हैं.
ये ग़ज़ल उन मेहनत कशों के नाम जो अपने ही मुल्क में दर बदर हैं. घर में रहो
जिनके घर हैं वे शौक से पहलू में बैठे रहें किराये के घर वाले क्या करें. मकान मालिक को क्या दें. सब
देवता नहीं हैं. गरीब मज़्दूर अपने वतन
अपने गाँव से उम्मीद रखे हैं कैसे भी वहां पहुँच कर गुज़ारा कर लेंगे. पर मतलब
परस्त वतन वाले हुक्मरान उन्हें बोझ समझकर मदद करने से कतरा रहे हैं.
उन्हें शराब बेचकर राजस्व कमाना है और
जो घर में चैन से बैठे हैं उनके घर महाभारत करा के मज़े लेना है. वे पी के चाहे
मरें या कोरोना फैला कर औरों को मारे पर उनका ख़ज़ाना भरें. बुढ्ढा मरे या जवान
सरकार का चले काम.
दिल्ली के मुख्य मंत्री जी कह रहे हैं क्या करें जी. शराब नहीं बिकी तो तो
सरकारी कर्मचारियों की तनखाह कहां से देंगे.
दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री भी शराबियों पर निर्भर हैं.उन्होंने भी मधुशालायें
खोल दीं. सोसियल डिस्टेंस की ऐसी तैसी हो रही ले कोरोना दे कोरोना का खेल चालु हो
गया.
पीने वाले भी सोचते हैं मरना ही है तो खा पी के मरें. मरते मरते 100 प्रतिशत
कोरोना टेक्स दे कर देश के विकास में अपना योगदान देते जायें.
हमने ताली भी बजाई, थाली भी बजाई ,दीप भी जलाये, सरहद पे हमारे कमान्डिंग
अफ्सर रेंक के आला अधिकारी शहीद हो रहे हैं. तो दूसरी तरफ फूल बरसाओ कार्यक्रम भी
ज़ारी है.
रही सही कसर शराब की दुकानों में लगी लाइनों ने पूरी कर दी. और शराबी
पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए. वो चाहे कोरोना को हो या बेवफ़ा सनम का. शराब
की कीमत दिल्ली में 70 प्रतिशत कोराना टेक्स के नाम पर वसूली जा रही हैं. पीने
वाले कह रहे हैं हमसे 100 प्रतिशत ले लो पर मधुशाला खुली रखो. हम भी देश को बचाने में अपना योगदान
देना चाहते हैं. सदके जावा पीने वालों के.
मंदिरों, मस्ज़िद, वाले अपने ख़जाने पर कुंडली मारकर बैठे हैं. उन्हें चाहिए
कि लोगों लिए वे अपने खज़ाने खोलें. लोग ज़िन्दा रहे तो फिर भर देंगे. पर वे ऐसा
नहीं करेंगें सारे धन को अपने साथ ले जायेंगे.
इस समय मरना गरीब आदमी का तो है ही पर उससे ज्यादा मध्यम वर्गीय लोगों का है
जो सड़क पर भीख भी नहीं मांग सकते. सरकार की तरफ से आधार कार्ड के आधार पर राशन भी
नहीं मिलेगा.
सब के रोज़गार बंद है वे क्या करें. कब तक बोलो कब तक यूं ही पहलू
में बैठे रहें. पर हमारे जैसे जो सरकारी अधिकारी हैं हेडक्वाटर नहीं छोड़ सकते.
पहलू में बैठे रहना हमारी किस्मत में कहां.
परिवार से दूर ओन ड्यूटी कोलेज कभी कभी जाना पड़ता है बाकी दिनों ओन लाइन से काम करना पड़ता है.
हमारे कमरे एक छिपकली कभी कभी दीवार पर नज़र आती है उसे भगाने की को जी नहीं करता. वही हमारी तन्हाईयों की एक मात्र चश्मदीद गवाह है.
कोरोना ने हाय राम
बड़ी दुख दीना.लोक डाउन ने सब सुख छीना.
दिल्ली जैसी बात हमारे गुजरात में कहां
शराब की तो बात जाने दो पानी मिले वही नसीब है.
तुम नहीं ग़म नहीं शराब नहीं.
ऐसी तन्हाई का जबाब नहीं.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता. 06-05-2020
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