ग़ज़ल
हमने खुलकर के मुहब्बत की
है.
हमने खुलकर के बग़ावत की
है.
तेरी ख़ातिर हां तेरी ही
ख़ातिर,
हमने ज़ख़्मों से भी
उल्फ़त की है.
तुमको फ़ुरसत ही कहां
ग़ैरो से,
हमने बस यूँ ही शिकायत की
है.
तेरी बातों को भी तरसे
बरसों,
तेरी चुप्पी की भी
इज़्ज़त की है.
किसने,किसने, ये बताओ तो
सही,
अपनी लाशों पे तिजारत की
है.
आइने की भी तो हिम्मत
देखो,
उसने पत्थर से अदावत की
है.
डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात ता.12-07-2020
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