ज़ुल्म की कोई हद तो मुकम्मिल करो, जिस्म से बात अब जान तक आ गयी .
मर गये मिट गये जो वतन के लिए, जिनके पुरखों ने
दी थी शहादत यहां,
उँगलियां वो उठाते है औलाद पर, आंच अब अपने
ईमान तक आ गयी.
स्याह रातों में हम रोशनी के लिए, झोपड़ी भी जला बैठे अपनी
यहाँ,
गाँव से फिर शहर, फिर शहर से सड़क, जां ये अब
अपनी शमसान तक आ गयी.
अपनी तोपों के मुँह खोल दो तुम यहां, हमको चिनवाओ दीवार में ग़म नहीं.
हक़ की ख़ातिर लड़े आखिरी सांस तक, जंग चौतरफा
ऐलान तक आ गयी.
कितने मग़रूर तुम, कितने मज़्बूर हम, बेटे सरहद
पे और बाप सड़कों पे हैं,
बेटियां दे रही हैं सहारा हमें,उनकी मां भी
मैदान तक आ गयी.
आग की आँख में हैं बराबर सुनो, झोपड़ी हो महल
हो या मेअराज हों,
चौकियों की सुरक्षा से होते हुए दास्ता अब तो
सुल्तान तक आ गयी.
डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात. तारीख 13/01/2021
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