ग़ज़ल
तेरे बारे में अब सोचता भी नहीं.
और ये भी है सच
भूलता भी नहीं.
तेरी तस्वीर तो
देखता हूँ मगर,
पहले की तरह अब
चूमता भी नहीं.
रूठने और मनाने
के मौसम गये,
सोचकर मैं यही
रूठता भी नहीं.
काट लेता हूँ
तन्हाइयों का नरक,
बेज़ह हर जगह
घूमता भी नहीं.
शाम का भूला
लौटेगा इक दिन सुब्ह,
बस इसी आश पर
मैं मरा भी नहीं.
डॉ. सुभाष
भदौरिया गुजरात ता. 09-03-2021
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