शनिवार, 22 जनवरी 2022

गर्दन पे अपने चाहे जितनी आरियां रहीं.

 

ग़ज़ल

गर्दन पे अपने चाहे जितनी आरियां रहीं.

अपने मिज़ाज में मगर ख़ुद्दारियां रहीं.


औरों से नाता जोड़ने में दिक्कतें बहुत,

अपनों से भी निभाने में लाचारियां रहीं.


मुहताज ना किसी के हुए ख़ैर मानिये,

यूं जिंदगी में बहुत सी बीमारियां रहीं.


कांटो के बीच हमने गुज़ारी तमाम उम्र,

ख़्वाबों में ख़ुश्बुओं की मगर क्यारियां रही.


बच्चे बढ़े हुए तो परिन्दों से उड़ गये,

मां बाप के नसीब में किलकारियां रहीं.


आँसू को अपने पोंछ लो क्यों रो रहे हो आप,

जीवन में यूं तो सबके ही दुश्वारियां रहीं.


डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.22-01-2022

 

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