शनिवार, 5 नवंबर 2022

टूटते, चीखते मोरबी हो गये.

 

ग़ज़ल

सबने सोचा था क्या, क्या सभी हो गये.

मौत की, एक गहरी नदी हो गये.

 

हमको झूले, झुलाये गये इस तरह,

टूटते, चीखते मोरबी हो गये.

 

घर को घर वाले ही नोंच खाते रहे,

मुफ़्त बदनाम तो बाहरी हो गये.

 

हम पे थोपे गये कैसे कैसे यहां,

सहते सहते जिन्हें हम सदी हो गये.

 

 

 

आँख में जो कभी अपनी बसते थे वे,

आँख की वे ही, अब किरकिरी हो गये.

 

 

गूंगे, बहरों की बस्ती में देखो जरा,

हम तो आवाज़ अब आखिरी हो गये.

 

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता. 11/05/2022

 

 

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