ग़ज़ल
रात भर चैन से वो तो सोते रहे.
और हम थे कि अँखियां भिगोते रहे.
उनकी राहों में मैं जितना बिछता गया ,
मूँग उतनी वो छाती पे बोते रहे.
खूँन ज़ख़्मों से रिसता रहा उम्र भर,
बेवफ़ा लोग नश्तर चुभोते रहे.
चाँदनी अपनी किस्मत में थी ही कहाँ ?
जो भी तारे मिले वो भी खोते रहे.
ये अलग बात डूबे नहीं आज तक,
यूँ समन्दर तो हमको डुबोते रहे.
डॉ. सुभाष भदौरिया, अहमदाबाद गुजरात ता. 29/11/2024
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