ग़ज़ल
होटों का तबस्सुम
समझे हैं,आँखों की ज़ुबां भी जाने हैं.
लाखों में
तुम्हे अय जानेग़ज़ल, हम दूर से ही पहिचाने हैं.
होटों की तम्हारे
क्या तुलना, कलियाँ भी लगें फीकी फीकी,
आँखों के तुम्हारे
क्या कहने, चलते फिरते मयख़ाने हैं.
इक बार तुम्हें
देखा जिसने, सब होश गवां बैठे अपने,
मस्जिद से नमाज़ी
गुम हैं, सूने सूने बुतखाने हैं.
चहुँओर तुम्हारे
ही चर्चे, चहुँओर तुम्हारे ही ज़लवे,
हम भी तो
तुम्हारे शैदाई, हम भी तो तेरे दीवाने हैं.
ये आग जलाती
है हमको, मालूम यहाँ पर है सबको,
जलने के लिए
बेताब मगर हर सिम्त यहाँ परवाने हैं.
देते है नसीहत
जो हमको इतरायें हैं अपनी ख़ुश्बू पे
चक्खी ही नहीं ये मय जिसने इस लुत्फ़ से जो अनजाने हैं.
डॉ. सुभाष
भदौरिया अहमदाबाद ता.14/12/2024
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