सोमवार, 23 दिसंबर 2024

रूप शाकुंतली, शील कामायनी, चित्रलेखा हो तुम, तुम ही हो उर्वशी.

 

                                    ग़ज़ल

जिस्म की सरहदों से गुज़रते हुए, रूह की सरहदों का सफ़र कीजिये.

दौड़कर वो मिले आ गले से गले, पैदा जज़्बात में वो असर कीजिये.


रूप शाकुंतली, शील कामायनी, चित्रलेखा हो तुम, तुम ही हो उर्वशी.

मैं मनु, मैं पुरू, मैं ही दुष्यंत हूँ मुझपे भी इक इनायत नज़र कीजिये.


केश कंधों पे पड़े अधखुले, अधखुले, चांद पर मेघ ज्यों सांवले सांवले,

देख कर जी रहे हैं उसी को तो हम बेख़बर को ज़रा तो ख़बर कीजिये.


सबकी किस्मतमें होती नहीं चाँदनी, आश फिर भी नहीं छोड़ता आदमी

स्याह रातें मुक़द्दर में आयीं तेरी जैसे भी हो सके बस बसर कीजिये.


हैं अभी तो कदर कुछ नहीं है मेरी, खो गये जो तो ढूँढ़ों गली दर गली

हो गया कोई रुख़सत जहां से तेरे बाद में ये ख़बर मुस्तहर कीजिये.


डॉ. सुभाष भदौरिया, अहमदाबाद गुजरात ता.23/12/2024

 

 

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