ग़ज़ल
वो पत्थर
दिल पिघलता ही नहीं है.
मेरा कुछ
ज़ोर चलता ही नहीं है.
तकूं मैं
राह सुब्होशाम उसकी,
वो इस रस्ते
निकलता ही नहीं है.
मैं दिल को
यूं तो बहलाये बहुत हूं,
ये उसके बिन
बहलता ही नहीं है.
झरें हैं
अश्रु बारोमास अपने,
यहाँ मौसम
बदलता ही नहीं है.
संभालेगा
मुझे क्या ख़ाक अब वो,
दुपट्टा जब
संभलता ही नहीं है.
करो लाखों जतन
पर कुछ न होगा,
दरख़्ते
इश्क़ फलता ही नहीं है.
डॉ. सुभाष
भदौरिया अहमदाबाद, गुजरात ता.28/12/2024
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